सोमवार, 11 अक्तूबर 2021

श्याम भजन और कथा

 जय श्री श्याम 


ठाकुर जी ने कहा -:- 

कुछ मांगों।

मैंने उनसे उन्हें ही मांग लिया।

ठाकुर जी ने  कहा -:-

मुझे नहीं, कुछ और मांगों।

मैंने कहा -:-

 राधा के श्याम दे दो।

ठाकुर जी ने  कहा -:-

अरे बाबा, मुझे नहीं कुछ और मांगों।

मैंने कहा -:- 

मीरा के गिरिधर दे दो।

ठाकुर जी ने  फिर कहा -:-

तुम्हें बोला ना कुछ और मांगों।

मैंने कहा -:-

अर्जुन के पार्थ दे दो।

अब तो ठाकुर जी ने पूछना ही बंद कर दिया। 

केवल इशारे से बोले :- 

कुछ और।

-:- अब तो मैं भी शुरू हो गया -:-

यशोदा मईया का लल्ला दे दो।

गईया का गोपाल दे दो।

सुदामा का सखा दे दो।

जना बाई के विठ्ठल दे दो।

हरिदास के बिहारी दे दो।

सूरदास के श्रीनाथ दे दो।

तुलसी के राम दे दो।

ठाकुर जी पूछ रहे है -:-

तेरी सूई मेरे पे ही आके

क्यों अटकती हैं ?

मैंने भी कह दिया -:-

क्या करूँ प्यारे।


जैसे घड़ी का सैल जब खत्म होने वाला होता है तो उसकी सूई एक ही जगह खडी-खडी, थोड़ी-थोड़ी हिलती रहती हैं।बस ऐसा ही कुछ मेरे जीवन का हैं। श्वास रूपी सैल पता नहीं कब खत्म हों जायें।

संसार के चक्कर काट-काट कर सैकड़ों बार तेरे पास आया।लेकिन अपने मद्ध मे चूर फिर वापिस लौट गया।

परन्तु अब नहीं प्यारे।

अब और चक्कर नहीं।

अब तो केवल तुम।

हाँ तुम।

सिर्फ तुम।

तुम , तुम और सिर्फ़ तुम...

        

 ┈┉══❀((जय श्री कृष्णा))❀══┉┈    


संतों का उपदेश


समय को दुर्लभ जानो, जीवन बीतता जा रहा है पारलौकिक धन अर्थात भक्ति का धन एकत्रित करो जो साथ जाएगा अगला श्वास भी हम ले पायेंगे या नही यह भी निश्चित नही है इसलिये हर श्वास को 'नाम' के सुमिरन मे लगाना है हर मनुष्य का यह प्रथम कर्तव्य है जीवन केवल खाने -पीने के लिये नही मिला है अपितु उसे मालिक के भजन सुमिरन मे लगाना है जीवन एक अमूल्य निधि है। 

जय श्री कृष्णा



कृपा तेरी होती है पर दिखती नहीं.......

तकलीफ आती है पर टिकती नहीं........

तेरा साथ है, साथ हमारे.......

तेरी नजर पड़ती है हम पर  मगर दिखती नहीं .......

"जय जय श्री राधे "      



हे कृष्ण .... 
सूरज के बिना सुबह नहीं होती,

चाँद के बिना रात नहीं होती,

बदल के बिना बरसात नहीं होती, और 

जय श्री कृष्ण के बिना 

दिन की शुरुआत नहीं होती ....... 

।।  जय श्री कृष्ण ।।  




🙏🙏🙏🙏

माला से मोती तुम तोडा न करो 

धर्म से मुँह तुम मोड़ा ना करो । 

बहुत कीमती है राधे रानी का नाम 

राधे राधे बोलना कभी छोड़ा न करो । 

🙏🙏 जय जय श्री राधे 🙏🙏




सांवरे... मस्त नजरो से देख लेते, गर 
तमन्ना थी आजमाने की ....
हम तो बेहोश यूँ भी थे, क्या जरुरत 
थी मुस्कुराने की  

💦💢💢💦




हाथ से किया गया दान और मुख से लिया गया प्रभु का नाम !
कभी व्यर्थ नहीं जाता " जय श्री श्याम " !!





🙏जय श्री कृष्णा🙏

लोगो की रक्षा करने को

एक उंगली पर पहाड़ उठाया,

उसी कन्हैय्या की याद दिलाने

गोवर्धन पूजा का दिन है आया।


👏😊गोवर्धन पूजा😊👏


💕❤️ कान्हा..... 💕❤️

 मेरे लिखने से क्या ...?✍🏻 

तुम पढ़ो 📖 तो कोई बात बने कान्हा......

 मेरे सोचने से क्या ...🤔 

तुम समझो तो कोई बात बने कान्हा...... 

 मै चुप हूँ तो क्या 😔 

  तुम कुछ बोलो तो

   कोई बात बने कान्हा...... 🙇🏻‍♂️

 मेरे चाहने से क्या .. 🤷🏻‍♂️

     तुम एहसास करो 

 तो कोई बात बने कान्हा..... 

 मै फूल🌷 हूँ तो क्या ...  

     तुम खुशबू बनो 

 तो कोई बात बने कान्हा..... ✍🏻

 मै बेरंग हूँ तो क्या .. 

       तुम रंग🖌️ भरो 

 तो कोई बात बने कान्हा..... 

🙍🏼‍♂️ मै निराकार हूँ तो क्या .. 

तुम साकार करो 

 तो कोई बात बने कान्हा.....🙋🏻‍♂️ 


💞💞 जय श्री कृष्णा 💞💞
🌹 Զเधे Զเधे 🌹



💢💢💦💢💢

गोविन्द का प्यार हर किसी की किस्मत में नहीं होता, 
और जिसे हो जाए गोविन्द से प्यार, 
उससे ज्यादा धनी कोई नहीं होता।।

🙏🏻🙏🏻 राधे राधे 🙏🏻🙏🏻




💢💢💧💧💥💢

गजब" "की" "बांसुरी" "बजती" "हैं"
         "वृन्दावन"  "में"  "कन्हैया"  "की"
 "तारीफ" "करूँ" "मुरली" "की" 
        "या"  "मुरलीधर" "कन्हैया"  "की"
 "जहाँ" "बस" "चलता" "न" "था"
         "तीरों"   "और"   "कमानों"   "से"
 "वहां""जीत" "होती" "नटवर" "की"
          "मुरली"    "के".   "तानों".  "से"

       •"" Զเधे Զเधे .•¨




🟩🟨🟩 राधा - कृष्ण 🟩🟨🟩

                      राधा :

कितने वर्षों बाद द्वारकाधीश आज ये घडी आयी है ।
स्वर्ग सजे महलों में कैसे तुमको राधा याद आयी है।

                      कृष्ण :

                                         मत कहो द्वारकाधीश मैं तो तुम्हारा कान्हा हूँ।
                                        क्यों समझ रही हो मुझे पराया मैं तो जाना माना हूँ।
                                        जब से बिछुड़ा तुम सब से हे राधे मुझे विश्रांति नहीं।
                                         हर दम दौड़ा भागा हूँ राधे मुझे किंचित शांति नहीं।

                    राधा :

क्यों होगी शांति तुम्हे कान्हा जब से तुम द्वारकाधीश बने।
गोकुल वृन्दावन को विसरा राजनीति के आधीश बने।
वंशी भूले ,यमुना भूले ,भूले गोकुल के ग्वालों को।
प्रेम पगी राधा भूले भूले ब्रज के मतवालो को।
अब बहुत दूर जाकर बोलो कान्हा कैसे लौटोगे।
जो दर्द दिया ब्रज वनिताओं को बोलो कैसे मेटोगे।
एक समय था उठा गोवर्धन ब्रजमंडल की तुमने रक्षा की थी।
एक समय था अर्जुन को गीता में लड़ने की शिक्षा दी थी।
एक समय था ब्रज मंडल में तुम सबके प्यारे प्यारे थे।
एक समय था जब हम सब तुम पर वारे वारे थे।
कैसे कृष्ण महाभारत का कोई हिस्सा हो सकता है ?
कैसे कृष्ण प्रेम के बदले युद्ध ज्ञान को दे सकता है ?
प्रेम शून्य होकर अब क्यों तुम प्रेम जगाने आये हो।
भूल चुके तुम जिन गलियों को क्यों अपनाने आये हो।
मैं तो प्रेम पगी जोगन सी सदा तुम्हारे साथ प्रिये।
तुम विसराओ या रूठ के जाओ मैं बोलूंगी सत्य प्रिये।

                  कृष्ण :

सत्य कहा प्रिय राधे तुमने मैंने जीवन मूल्यों को त्यागा है।
लेकिन न किंचित सुख में रहा ये कान्हा तुम्हारा अभागा है।
विषम परिस्थितियों ने मुझ कान्हा को कूटनीति है सिखलाई।
पर तुम्हारे इस प्रिय अबोध को राजनीति कभी नहीं भाईं।
लेकिन न किंचित सुख पाया इन भव्य स्वर्ग से महलों में।
बिसर न पाया वह सुख जो मिला था गोकुल की गलियों में।
भूला नहीं आज तक हूँ मैं वह आनंदित रास प्रिये।
जीवन की आपा धापी में वे यादें सुगन्धित पास प्रिये।
नन्द यशोदा और ब्रज वालों का ऋण कैसे चुका पाऊंगा ?
कौन सा मुख लेकर अब उनके सम्मुख मैं जाऊंगा ?
कई बार छोड़ कर राजपाट आने का मन करता है।
लेकिन कर्तव्यों के पालन में सौ बार ये मन मरता है।
मेरी विषम विवशताओं का आज आंकलन तुम करो प्रिये।
अपराध बोध से ग्रसित इस ह्रदय दंश को तुम हरो प्रिये।

                     राधा :

                                 कान्हा से तुम कृष्ण बने फिर तुम बने द्वारकाधीश।
                                 भक्तों के तुम भगवन प्यारे मेरे हो आधीश।
                                 इस अपराध बोध से निकलो तुम सबके प्रिय हो बनवारी।
                                 भक्तों के तुम तारण कर्ता राधा तुम पर वारि वारि।
                                 सौ जन्मों के वियोग को सह लूंगी श्री गोपाल हरि।
                                 एक पल तेरा संग मिले जो मेरे हों बारे न्यार ,,॥


🟩🟨🟩.श्री🟩🟨🟩
🟪🟢🟪राधे🟪🟢🟪
🟩🟨🟩राधे🟩🟨🟩


🟢🟢🟢🟢🟢

सारी दुनिया में जा कर 

देख लेना 

मेरे बांके बिहारी 

जैसा दूसरा कोई नहीं  !!


🟢🟢🟢🟢🟢



राधा की कसम🌿

वृन्दावन का एक भक्त ठाकुर जी को बहुत प्रेम करता था, भाव विभोर हो कर नित्य प्रतिदिन उनका श्रृंगार करता था। आनंदमय हो कर कभी रोता तो कभी नाचता।एक दिन श्रृंगार करते हुए जैसे ही मुकट लगाने लगा, तभी मुकट ठाकुर गिरा देते।एक बार दो बार कितनी बार लगाया पर छलिया तो आज लीला करने में लगे थे।

अब भक्त को गुस्सा आ गया, वो ठाकुर से कहने लगा तोह को तेरे बाबा की कसम मुकट लगाई ले।
पर ठाकुर तो ठाकुर है, वो किसी की कसम माने ही नही।जब नही लगाया तो भक्त बोला तो को तेरी मइया की कसम। ठाकुर जी माने नही। अब भक्त का गुस्सा और बढ़ गया।उसने सबकी कसम दे दी। तोहे मेरी कसम.. तोरी गायिओ की कसम.. तोरे सखाँ की कसम.. तोरी गोपियों की कसम.. तोरे ग्वालों की कसम.. सबकी कसम दे दी,

पर ठाकुर तो टस से मस ना हुए।अब भक्त बहुत परेशान हो गया और दुखी भी। फिर खीज गया और गुस्से में बोला-ऐ गोपियन के रसिया.. ऐ छलिया, गोपियन के दीवाने, तो को तोरी राधा की कसम है, अब तो मुकुट लगाले।

बस फिर क्या था.. ठाकुर जी ने झट से मुकट धारण कर लिया।अब भक्त भी चिढ़ गया। अपनी कसम दी, गोप-गोपियों की, माँ, बाबा, ग्वालन की दी। किसी की नही सुनी लेकिन राधा की दी तो मान गये।

अगले दिन फिर जब भक्त श्रंगार करने लगा तो इस बार ठाकुर ने बाँसुरी गिरा दी।भक्त हल्के से मुस्कराया और बोला- इस बार तोह को अपनी नही मेरी राधा की कसम। 

तो भी ठाकुर ने झट से बांसुरी लगा ली।अब भक्त आनंद में आकर कर झर-झर रोने लगा।

 भक्त कहता है- मै समझ गया मेरे ठाकुर, तो को राधा भाव समान निश्चल निर्मल प्रेम ही पसंद है। समर्पण पसंद है। इसलिये राधा से प्रेम करत है।

 अपने भाव को राधा भाव समान निर्मल बना कर रखे अपने प्रेम को पूर्ण-समर्पण रखे सरलता में ही प्रभु है। हे मेरी राधे जू, सारी रौनक देख ली ज़माने की मगर, जो सुकून तेरे चरणों में है, वो कहीं नहीं !!


🙏जय जय श्री राधे🙏🌹

💦 श्याम 🙏

👉 पता नहीं कोन - कोन से "विटामिन" है, 

आपकी तस्वीर में कान्हा । 

एक दिन भी दीदार ना करो ,

तो कमजोरी सी महसूस होने लगाती है ।। 

💥💦💥


सदना कसाई की कथा

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे

हरे कृष्ण आपको मेरा नमस्कार आपका दास--   हरे कृष्ण

काशी में एक ब्राह्मण के सामने से एक गाय भागती हुई किसी गली में घुस गई। तभी वहां एक आदमी आया उसने गाय के बारे में पूछा -पंडितजी माला फेर रहे थे इसलिए कुछ बोला नहीं बस हाथ से उस गली का इशारा कर दिया जिधर गाय गई थी । 

पंडितजी इस बात से अंजान थे कि वह आदमी कसाई है, और गौमाता उसके चंगुल से जान बचाकर भागी थीं। कसाई ने पकड़कर गोवध कर दिया। अंजाने में हुए इस घोर पाप के कारण पंडितजी अगले जन्म में कसाई घर में जन्मे नाम पड़ा, सदना। पर

 पूर्वजन्म के पुण्यकर्मो के कारण कसाई होकर भी वह उदार और सदाचारी थे। कसाई परिवार में जन्मे होने के कारण सदना मांस बेचते तो थे, परन्तु भगवत भजन में बड़ी निष्ठा थी एक दिन सदना को नदी के किनारे एक पत्थर पड़ा मिला। पत्थर अच्छा लगा इसलिए वह उसे मांस तोलने के लिए अपने साथ ले आए।वह इस बात से अंजान थे कि यह वही शालिग्राम थे जिन्हें पूर्वजन्म नित्य पूजते थे ।

सदना कसाई पूर्वजन्म के शालिग्राम को इस जन्म में मांस तोलने के लिए बाँट ( तोल) के रूप में प्रयोग करने लगे।आदत के अनुसार सदना ठाकुरजी के भजन गाते रहते थे। 

ठाकुरजी भक्त की स्तुति का पलड़े में झूलते हुए आनंद लेते रहते।बाँट का कमाल ऐसा था कि चाहे आधा किलो तोलना हो, एक किलो या दो किलो सारा वजन उससे पक्का हो जाता। एक दिन सदना की दुकान के सामने से एक ब्राह्मण निकले, उनकी नजर बाँट पर पड़ी तो सदना के पास आए और शालिग्राम को अपवित्र करने के लिए फटकारा। 

उन्होंने कहा- मूर्ख, जिसे पत्थर समझकर मांस तौल रहे हो वे शालिग्राम भगवान हैं। ब्राह्मण ने सदना से शालिग्राम भगवान को लिया और घर ले आए।

गंगा जल से नहलाया, धूप, दीप,चन्दन से पूजा की। ब्राह्मण को अहंकार हो गया जिस शालिग्राम से पतितों का उद्दार होता है आज एक शालिग्राम का वह उद्धार कर रहा है। रात को उसके सपने में ठाकुरजी आए और बोले- तुम जहां से लाए हो वहीँ मुझे छोड़ आओ, मेरे भक्त सदन कसाई की भक्ति में जो बात है वह तुम्हारे आडंबर में नहीं।

ब्राह्मण बोला- प्रभु! सदना कसाई का पापकर्म करता है, आपका प्रयोग मांस तोलने में करता है। मांस की दुकान जैसा अपवित्र स्थान आपके योग्य नहीं, भगवान बोले- भक्ति में भरकर सदना मुझे तराजू में रखकर तोलता था मुझे ऐसा लगता है कि वह मुझे झूला रहा हो। मांस की दुकान में आने वालों को भी मेरे नाम का स्मरण कराता है।

मेरा भजन करता है, जो आनन्द वहां मिलता था वह यहां नहीं, तुम मुझे वही छोड आओ। ब्राह्मण शालिग्राम भगवान को वापस सदना कसाई को दे आए। ब्राह्मण बोला- भगवान को तुम्हारी संगति ही ज्यादा सुहाई। यह तो तुम्हारे पास ही रहना चाहते हैं। ये शालिग्राम भगवान का स्वरुप हैं, हो सके तो इन्हें पूजना बाट मत बनाना।

सदना ने यह सुना अनजाने में हुए अपराध को याद करके दुखी हो गया। सदना ने प्राश्चित का निश्चय किया और भगवान जगन्नाथ के दर्शन के लिए निकल पड़ा। 

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे

वह भी भगवान के दर्शन को जाते एक समूह में शामिल हो गए लेकिन लोगों को पूछने पर उसने बता दिया कि वह कसाई का काम करता था। लोग उससे दूर-दूर रहने लगे। 

उसका छुआ खाते-पीते नहीं थे। दुखी सदना ने उनका साथ छोड़ा और शालिग्रामजी के साथ भजन करता अकेले चलने लगा। सदना को प्यास लगी थी,रास्ते में एक गांव में कुंआ दिखा तो वह पानी पीने ठहर गया। वहां एक सुन्दर स्त्री पानी भर रही थी।वह सदना के सुंदर मजबूत शरीर पर रीझ गई। 

उसने सदना से कहा कि शाम हो गई है, इसलिए आज रात वह उसके घर में ही विश्राम कर लें,सदना को उसकी कुटिलता समझ में न आई, वह उसके अतिथि बन गए, रात में वह स्त्री अपने पति के सो जाने पर सदना के पास पहुंच गई और उनसे अपने प्रेम की बात कही, स्त्री की बात सुनकर सदना चौंक गए और उसे पतिव्रता रहने को कहा। 

स्त्री को लगा कि शायद पति होने के कारण सदना रुचि नहीं ले रहे, वह चली गई और सोते हुए पति का गला काट लाई। सदना भयभीत हो गए,स्त्री समझ गई कि बात बिगड़ जाएगी इसलिए उसने रोना-चिल्लाना शुरू कर दिया। 

पड़ोसियों से कह दिया कि इस यात्री को घर में जगह दी थी चोरी की नीयत से इसने मेरे पति का गला काट दिया, सदना को पकड़ कर न्यायाधीश के सामने पेश किया गया। न्यायाधीश ने सदना को देखा तो ताड़ गए कि यह हत्यारा नहीं हो सकता।

 उन्होने बार-बार सदना से सारी बात पूछी। 

सदना को लगता था कि यदि वह प्यास से व्याकुल गांव में न पहुंचते तो हत्या न होती।वह स्वयं को ही इसके लिए दोषी मानते थे, अतः वे मौन ही रहे। न्यायाधीश ने राजा को बताया कि एक आदमी अपराधी है नहीं पर चुप रहकर एक तरह से अपराध की मौन स्वीकृति दे रहा है। इसे क्या दंड दिया जाना चाहिए ?

राजा ने कहा- यदि वह प्रतिवाद नहीं करता तो दण्ड अनिवार्य है, अन्यथा प्रजा में गलत सन्देश जाएगा कि अपराधी को दंड नहीं मिला।इसे मृत्युदंड मत दो, हाथ काटने का हुक्म दो। सदना का दायां हाथ काट दिया गया, सदना ने अपने पूर्वजन्म के कर्म मानकर चुपचाप दंड सहा और जगन्नाथपुरी धाम की यात्रा शुरू की।

धाम के निकट पहुंचे तो भगवान ने अपने सेवक राजा को प्रियभक्त सदना कसाई की सम्मान से अगवानी का आदेश दिया। प्रभु आज्ञा से राजा गाजे-बाजे लेकर अगुवानी को आया। 

सदना ने यह सम्मान स्वीकार नहीं किया तो स्वयं ठाकुरजी ने दर्शन दिए। उन्हें सारी बात सुनाई- तुम पूर्वजन्म में ब्राहमण थे, तुमने संकेत से एक कसाई को गाय का पता बताया था। 

तुम्हारे कारण जिस गाय की जान गई थी वही स्त्री बनी है जिसके झूठे आरोपों से तुम्हारा हाथ काटा गया। उस स्त्री का पति पूर्वजन्म का कसाई बना था जिसका वध कर गाय ने बदला लिया है। भगवान जगन्नाथजी बोले- सभी के शुभ और अशुभ कर्मों का फल मैं देता हूँ ।

अब तुम निष्पाप हो गए हो।घृणित आजीविका के बावजूद भी तुमने धर्म का साथ न छोड़ा इसलिए तुम्हारे प्रेम को मैंने स्वीकार किया। मैं तुम्हारे साथ मांस तोलने वाले तराजू में भी प्रसन्न रहा।भगवान के दर्शन से सदनाजी को मोक्ष प्राप्त हुआ। भक्त सदनाजी की कथा हमें बताती है, कि भक्ति में आडंबर नहीं भावना बनाये रखती है।

भगवान के नाम का गुणगान करना और हरे कृष्ण कृष्ण महामंत्र को जपना सबसे बड़ा पुण्य है।




  "वृन्दावन की सुबह" ज़रूर पढ़े

 हर सुबह वृन्दावन का नज़ारा, चिड़ियों का चहकना, मंदिरों की घंटी का आवाज़, सत पुरुषों का सत्संग जैसे भक्ति रस घुल रहा हो ; हर आत्मा उस में मगन हो यह है खूबसूरती वृन्दावन धाम की।

 यहाँ हर बच्चा राधा कृष्ण जी का स्वरुप है, यहाँ पढाई का पहला अक्षर भगवान् श्री हरी जी के नाम से है। यमुना जी का कल-कल करता पानी, फल से लदे वृक्ष, फूलों के झुण्ड, भंवरों की गुंजन, हरी नाम की रास लीलाओं के गान ; हर आत्मा को श्री राधा कृष्णा जी से जोड़ देता है।  

कोई गिरिराज की परिक्रमा कर रहा है तो कोई वृन्दावन की ; कोई जा रहा है निधिवन तो कोई वंशीवट ; कोई मदन टीर तो कोई मान सरोवर ; कोई भागवत वाच रहा है तो कोई गीता ; कोई भक्तों को भगवान की कथा सुना रहा है तो कोई भगवान् के मीठे भजन गा रहा है ; ऐसा लगता है की सब तन मन धन से भगवान के श्री चरणों में अर्पित हो गए हों। ऐसा नज़ारा है हमारे वृन्दावन धाम का । 

कोई सुबह-सुबह मंदिर की सीढ़ियाँ धो रहा है तो कोई प्रसाद बाँट रहा है ; कोई कीर्तन कर रहा है तो कोई दर्शन खुलने की प्रतिक्षा कर रहा है। कोई दर्शन करके उस में मगन हो रहा है तो कोई पद्यावाली लिखने में व्यस्त हो रहा है ; कहीं मंदिर में फूलों का श्रृंगार बन रहा है तो कहीं भोग बन रहा है। ऐसा लगता है जैसे आठों पहर भगवान् से शुरू हो कर भगवान् पर ही समाप्त हो जाते हैं। 

समय कब समाप्त हो जाता है ये किसी को पता ही नहीं चलता है। ना किसी को अपनी अवस्था का ध्यान है न ही किसी को अहंकार है न ही कोई झगडा लड़ाई है सब मिल झूलकर निःस्वार्थ प्रेम जगा रहे हैं, अपने और दूसरों के दिल में। प्रातःकाल के यह हैं सुन्दर दर्शन इस वृन्दावन धाम के। यहाँ किस रूप में भगवान् मिल जाएँ कुछ पता नहीं।

 ऐसी अद्भुत धरती को हम शत-शत नमन करते हैं।  इस धाम में आनेवाले हर किसी के मन में एक सी ही छवि है श्रीश्यामा-श्याम की:-  घुंगराले केश, कमल नयन, श्याम वरन, मोहिनी चितवन, मीठी मुस्कान, गले में वैजयन्ती माला, जिनके शीश पर विराजे मोर मुकुट, तन लहराए पीत पीताम्बर, चरणों में नुपुर, हाथों में बांसुरी लिए यह नटखट श्याम जिसे हर गोप-गोपी प्रेम से कान्हा बुलाये- वह सब का चित चुरा लेते हैं। भोली भाली, चन्द्र वदन, चंचल नयन, सुन्दर मोहिनी स्वरुप, गौर वरन, मधुर मुस्कान, मन मोहिनी, रसिक वन्दिनी, शीश चंद्रिका धारिणी, कनक समान शोभायमान, भूषण बिना विभूषित वृन्दावन धाम की अधिष्टात्री देवी हमारी श्री राधा रानी जी।

यहाँ नित्य प्रातः से लेकर रात्रि तक हर कोई केवल श्री राधाकृष्ण जी की ही सेवा में रत है। 


      आठों पहर आठों याम, श्रीयुगल सेवा एक ही काम।
      राधे-राधे से गूँजे गलियाँ, ऐसो है  श्रीवृंदावन धाम।।




    गोपी का विरह भाव

एक नई गोपी को श्रीकृष्ण का बहुत विरह हो रहा था। सारी रात विरह में करवटे बदलते ही बीत रही थी।

     सुबह ब्रह्म मुहूर्त में जागी तो देखा जोरों की वर्षा हो रही है। बादल बिल्कुल काले होकर नभ पर बिखरे पड़े हैं। श्याम वर्ण घने बादल देखते ही गोपी की विरह वेदना बढ़ने लगी। और मन ही मन बोली–'हे श्याम घन!! तुम भी मेरे प्रियतम घनश्याम की तरह हो। हे घन! जाओ और उस नटखट को मेरा सन्देश दे आओ कि एक  गोपी तुम्हारी याद में पल पल तड़प रही है। मेरे इन आँसुओं को अपने जल में मिलाकर श्याम पर बरसा देना। मेरे आँसूओं की तपन से शायद उस छलिया को मेरी पीड़ा का एहसास हो।'

          थोडी देर के बाद बारिश रूकी तो मटकी उठाकर अपनी सास से जल भरने की अनुमति मांग कर घर से बाहर निकल गयी। मुख पर घूँघट, कमर और सर पर मटकी रख कर कृष्ण की याद में खोई चलती जा रही है पनघट की डगर।

          थोडी आगे गई थी कि बारिश फिर से शुरू हो गई। अब गोपी के वस्त्र भी भीगने लगे। गोपी का बाह्य तन बारिश की वजह से भीगने लगा और ठण्ड भी लगने लगी। गोपी का अंतरमन (हृदय) विरह अग्नि से जल रहा था। वह गोपी बाहर की ठण्डक और अन्दर की जलन, दोनों का अनुभव कर रही है।

          उधर कान्हा को अपनी भक्त की पीड़ा का एहसास हो गया था। और वह भी विरह में छटपटाने लगे। फिर तुरन्त ही काली कमली कांधे पर डाली और निकल पड़े वंशी बजाते हुए यमुना के तीर।
          एक वृक्ष के नीचे कान्हाजी उस गोपी की राह देखने लगे। सहसा देखा कि कुछ दूर वही गोपी घूँघट डाले चली आ रही है।

          नटखट कान्हाजी ने रास्ता रोक लिया। और बोले–'भाभी....! तनिक थोड़ा पानी पिला दो, बड़ी प्यास लगी है।' गोपी घूँघट में थी, पहचान नही पाई कि जिसकी याद में तड़प रही है वोही समक्ष आ गया है।

          गोपी तो विरह अग्नि में जल रही थी तो बिना देखे ही रुग्णता से बोली–'अरे ग्वाले! नेत्र क्या कहीं गिरवी धरा आये हो ? देखता नहीं कि मटकी खाली है। पनघट जा रही हूँ अभी।'('श्रीजी की चरण सेवा' की ऐसी ही आध्यात्मिक, रोचक एवं ज्ञानवर्धक पोस्टों के लिये हमारे फेसबुक पेज के साथ जुड़े रहें)
          नटखट कान्हाजी ने एक करामत करी। मन्द-मन्द मुस्कुराते कान्हा ने घूँघट पकड लिया और बोले–'अरि भाभी! नेक अपना चाँद सा मुखड़ा तो दिखाती जा!'

          अब तो गोपी डर गई–एक तो वन का एकान्त और यह कोई लूटेरा लग रहा है। फिर गोपी ने घूँघट जोर से पकड लिया। लेकिन कान्हाजी भी कहाँ छोडने वाले थे। अब दोनों तरफ से घूँघट की खिंचातानी होने लगी।

          तभी नटखट कान्हाजी ने गोपी का घूँघट खिंच लिया, और गोपी ने चौंककर एक हाथ से अपना मुख ढक लिया।

          एक क्षण के बाद गोपी ने हाथ हटाया और दोनों की आँखे मिली। और गोपी हतप्रभ हो गई ! 'अरे ये तो मेरे श्याम हैं। और ये मुझे भाभी कहकर बुला रहे हैं! कितने नटखट हैं!'

          दोनों तरफ से आँखों से मूक प्रेम बरस रहा था और दोनों तरफ से हृदय से बात हो रही थी। एक अलौकिक प्रेममय वातावरण हो गया था।

          सहसा गोपी बोली–'मैं भाभी नही, तुम्हारी गोपी हूँ, तुम्हारी सखी हूँ।' कान्हाजी जोर से खिलखिलाकर हँस पड़े।

          कान्हाजी बोले–'अरी गोपी! हम तो तुम्हें धिक करने को भाभी बोले हैं !'

          गोपी थोड़ा शरमा गई और बोली–'हटो राह से! जल भर लाने दो हमें।' कृष्ण ने हँसते-हँसते रास्ता दे दिया। गोपी अब तो असमंजस में पड़ गई। जल भरने जाऊ तो मिलन अधूरा रहेगा और न जाऊँ तो सास खिजेगी। इसी असमंजस में एक क्षण के बाद देखा तो कान्हाजी को दूर जाते देखा और हृदय में अधूरे मिलन की विरहाग्नी शुरू हो गई।

          सखियों! यहाँ प्रभु सभी जीव को यह समझा रहे हैं–'अगर मेरा ही स्मरण करोगे तो मुझे तुरन्त ही समक्ष पाओगे। लेकिन संसार के डर से थोडे भी विमुख हुए तो मुझे दूर जाता पाओगे। अगर जीव को गोपी जैसा विरह होता है तो मुझे वापिस सन्मुख होना ही पड़ता है। इसलिए जीव के हृदय में सतत् गोपी भाव ही रहना चाहिए जिससे हमारे प्रभु सदा हमारे हृदय में ही वास करें।'

          अब गोपी विरहाग्नी में जलती हुई कान्हाजी का स्मरण करते हुए अनमने भाव से  जल भरकर वापस चल दी। एक मटका सर पर, दूसरा कमर पर। कृष्ण के ख्यालों में खोई सी चल रही है। उसने घूँघट भी नहीं किया है और चारों ओर कान्हाजी को तलाशती हुई वापस आ रही है।

          कृष्ण जिनका नाम है वो ही विरह की वेदना और मिलन के सुख का दान देते हैं। रास्ते में पास के कदम्ब के पेड़ पर उस गोपी की घात लगाकर वह नटखट छलिया बैठे है।

          कान्हाजी ने गोपी के निकट आते ही कंकड़ मारकर सर पर रखी मटकी फोड़ दी। तो घबराहट में दूसरी मटकी भी हाथ से छूट गई। कदम्ब के पत्तों में छिपे श्याम की शरारती खिलखिलाहट समग्र भूमण्डल में गूँजने लगी। सारी प्रकृति खिल उठी। गोपी कृष्ण प्रेमरूपी जल से भीग गई। संसार को भूल गई और कृष्ण मय हो गई। सब ओर सावन दृष्टिगोचर होने लगा।

          गोपी ऊपर से रूठती, अन्दर से प्रसन्न, आह्लादित हुई ! और हो भी क्यों न? सबके मन को हरने वाला सांवरा आज उसपर कृपा कर गया।

          व्रज की गोपियों के भाग्य का क्या कहना। गोपियों का माखन चोरी करना , मटकी फोड़ना और उन्हें परेशान करना ये सब गोपियों को भी बहुत भाता है। इसमें जो आनन्द है, वो जगत में कहीं नही।
          छछिया भर छाछ के लालच में कमर मटका-मटका कर नन्हा कृष्ण जब उन्हें नृत्य दिखाता है तो सब दीवानी हो उठती हैं। कोई गाल चूमती है, कोई हृदय से लगाकर रोती है। कोई आलिंगन कर गोद में बिठा लेती है, और वचन देने को कहती है–'अगले जन्म में उसका बेटा बने। अ आहाहा.... गोपियाँ कितनी भाग्यशाली हैं।

          एक नन्हा नटखट कान्हा और सैंकड़ों गोपियाँ हैं। सबके अलग भाव हैं। किसी को बेटा दिखता है, किसी को प्रियतम और किसी को सखा। परन्तु प्रभु का ऐश्वर्यशाली रूप उन्हें नही पता। उनका अबोध, निश्छल मन तो उन्हें व्रज का ग्वाल समझकर ही प्रेम करता है।   ऐसा प्रेम जिसकी कोई पराकाष्ठा नही है।

          श्याम भी खूब माखन लिपटवाते हैं मुख पर। कपोल चूम-चूम कर लाल कर देती हैं गोपियाँ। जिससे नन्हे कन्हैया का साँवला रूप और भी मोहक लगने लगता है। गोपियाँ के जो भी मन में हो वैसा ही बर्ताव कान्हाजी के साथ करती है और कृष्ण सभी को उनके मन जैसा ही प्रेम देते हैं।

हे प्रभु! हम भी सैंकड़ों वर्षो से आपसे बिछड़े हैं। 

हमारे भीतर भी गोपी जैसा विरह हो ऐसी कृपा करो।
                             


                           "जय जय श्री राधे"


गोवर्धन पर्वत 

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गिरिराज गोवर्धनजी की परिक्रमा की परंपरा है 

भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धन को धारण करके गोकुल की रक्षा की थी. गोवर्धन का स्पर्श हो जाना भी सौभाग्य की बात है आज मैं आपको गोवर्धन की महिमा की एक ऐसी कथा सुनाऊंगा जो शायद आपने पहले न सुनी हो  

क्यों गिरिराजजी का पत्थर लोग अपने घर में सहेजकर रखते हैं 

अपने जीवनकाल में हर श्रीकृष्ण भक्त को एक बार गोवर्धन जाकर उनका स्पर्श तो कर ही लेना चाहिए 

गर्ग संहिता की जो कथा सुनाने जा रहा हूं वह कथा स्वयं नारदजी ने सुनाई थी 

राजा बहुलाश्व ने सेवा करके नारदजी को बहुत प्रसन्न कर लिया. वह नारदजी से ज्ञान प्राप्त करने लगेनारदजी ने बहुलाश्व को बताया कि वह वर्ष में एक बार गोवर्धनजी को प्रणाम करने अवश्य जाते हैं

बहुलाश्व ने नारदजी से पूछा- हे देवर्षि ऐसी क्या खास बात है गोवर्धनजी में 

मुझे गोवर्धनजी के माहात्म्य कथा सुनने की इच्छा हो रही है. मेरी जिज्ञासा शांत करें 
नारद बोले- गौतमी गंगा यानी गोदावरी नदी के तट पर बसने वाला ब्राह्मण विजय का कुछ कर्ज मथुरा में बकाया था. वही वसूलने वह मथुरा आया हुआ था 
दिन में उसने वसूली की और शाम होने से पहले ही अपने रास्ते चल पड़ा 

 गोवर्धन गिरिराजजी तक पहुंचते पहुचते अंधेरा होने लगा 

चूंकि विजय के हाथ एक लाठी के सिवा कोई हथियार तो था नहीं 

उसे चोरों का डर महसूस हुआ तो उसने गिरिराज जी के पास से एक गोल चिकना पत्थर उठाकर साथ रख लिया 

डर भगाने के लिए वह हरेकृष्ण हरे कृष्ण भजता जंगल के बीच से ब्रजमंडल को पार कर गया पर छोड़ा ही आगे बढा होगा कि उसने एक तीन पैरों वाले राक्षस को सामने खड़ा पाया 
राक्षस का मुंह उसकी छाती पर था. एक बांस लंबी उसकी जीभ लपलपा रही थी और वह उसे निगलने को तैयार था. भूखा राक्षस विजय की ओर लपका 

विजय जब गिरिराजजी के पास से गुजरा था तो उसने गिरिराजजी का एक गोल पत्थर उठा लिया था. गिरिराजजी के दर्शन को आने वाले सहज ही ऐसा करते हैं

विजय को कुछ न सूझा तो उसने अपनी रक्षा के लिए वही पत्थर राक्षस को दे मारा 
विजय को यकीन था कि इतने विशाल राक्षस का इस छोटे से पत्थर से कुछ होने जाने वाला नहीं. इसलिए पत्थर चलाने के बाद उसने मारे डर और घबराहट में आंखे मूंद लीं 

विजय की आखें खुली तो उसने देखा कि राक्षस का तो कहीं अता पता नहीं है, उसके सामने तो साक्षात भगवान कृष्ण खड़े हैं 

अचरज की बात कि भगवान विजय की ओर हाथ जोड़े खड़े थे 

जब तक विजय के मुंह से कुछ निकलता, उस वंशीधारी स्वरूप ने विजय से कहा- आप धन्य हैं जो मुझे इस राक्षस योनि से छुटकारा दिला दिया 

विजय ने सोचा यह क्या आश्चर्य है. वंशीधर मुझे कह रहे हैं कि मैंने उनका उद्धार कर दिया. यह कौन सी माया है. वह चकित होकर उसे देखने लगा तो उद्धारगति से गुजरे राक्षस ने बताना शुरू किया.
उसने कहा- हे ब्रह्मण! इस पत्थर के मेरे शरीर से छू जाने भर से सिर्फ मेरा उद्धार ही नहीं हुआ बल्कि मैंने श्रीकृष्ण का सारूप्य प्राप्त कर लिया, मैं उनके जैसा हो गया 

यह सब आपके द्वारा मुझ पर चलाए गए इस पत्थर की महिमा है

इस छोटे से पत्थर के प्रहार से ही मेरे अंदर के शाप का संहार हो गया  आप मेरे उद्धार के माध्यम बने  आप को बारम्बार नमस्कार है 

विजय बोला- यह क्या बात कह हे हैं आप, मुझमें उद्धार की ताकत कहां! यदि यह चमत्कार इस पत्थर की महिमा से हुआ है तो वह भी मैं नहीं जानता  आप ही मुझे इस पत्थर की महिमा बताकर कृतार्थ करें 

ब्राह्मण विजय की बात पर वह कृष्ण जैसा दिखने वाला वंशीधारी बोला- गिरिराज जैसा तीर्थ न पहले कभी हुआ है न भविष्य में कभी होगा  

केदार तीर्थ में पांच हजार साल तप करने से जो पुण्य मिलता है गोवर्धन पर क्षणभर में मिल जाता है 

महेंद्र पर्वत पर अश्वमेध करके मनुष्य स्वर्ग का अधिपति बन सकता है जबकि यही गिरिराजजी पर करने से वह स्वर्ग के मस्तक पर पैर रखकर सीधे विष्णुलोक जाता है 
गोवर्धन परिक्रमा करके गोविंद कुंड में स्नान करने से मनुष्य श्रीकृष्ण जैसे दिव्य हो जाते हैं 
उसने विजय को गिरिराजजी की ऐसी हजार महिमा बतायी जो आश्चर्य में डालने वाली थीं 
विजय ने पूछा- तुम दिव्यरूप धारी दिखायी देते हो, पर तुम भगवान कृष्ण तो हो नहीं ! तुम हो कौन ?
उसने अपनी कथा भी बतानी शुरू की 

हे पुण्यात्मा ब्राह्मण मेरी यह कथा कई जन्म पूर्व से से शुरू होती है  आपने मेरा उद्धार किया है अतः मैं आपको अवश्य सुनाऊंगा 

कई जन्मपूर्व मैं एक धनी वैश्य था. मैंने व्यापार कर्म करके अथाह धन जमा किया  मैं नगर का सबसे बड़ा धनिक हो गया पर धन होने से मुझमें एक बुराई आ गई 

मुझे जुए की लत लग गयी. जुआ खेलने की पूरी टोली में मैं सबसे चतुर जुआरी था  मुझे कोई हरा नहीं पाता था. इसी बीच मुझे एक वेश्या से प्रेम हो गया तो शराब पीकर धुत्त रहने लगा । मां-बाप, पत्नी सबने मुझे बहुत दुत्कारा 

वे मेरा निरंतर अपमान कर देते थे. क्रोध में भरकर मैंने उनकी हत्या करने की सोची और एक दिन अवसर देखकर मां-पिता को विष दे दिया 

अपने मां-बाप को मार डालने के बाद मैंने अपनी पत्नी को लिया और उसे कहीं और चलकर बस जाने के लिए फुसला लिया. वह मान गई तो उसे लेकर मैं चला 

रास्ते में मैंने पत्नी की भी हत्या कर दी  अब न तो कोई दुत्कारने वाला था और न ही धन व्यय करने पर रोक-टोक वाला था. धन तथा अपनी प्रेयसी वेश्या को लेकर मैं दक्षिण देश चला गया 

एक समय बाद मेरा धन समाप्त हो गया. धन के अपव्यय की लत थी इसलिए धन की बहुत आवश्यकता हुई तो वहां मैं लूटपाट करने लगा 

कुछ समय बाद मेरा मन उस वेश्या से भी भर गया तो मैंने उससे भी छुटकारा पाने की सोची एक दिन उसे भी अंधे कुंए में ढकेल आया 

उसके बाद मैं लूटपाट करता रहा. लूटपाट के लिए मैंने सैकड़ों हत्याएं कीं  एक दिन वन में एक सांप पर पैर पड़ गया. उसने मुझे डस लिया तो मेरी तुरंत मौत हो गयी 

चौरासी लाख नरकों में मैंने एक-एक साल यातना सही । फिर दस बार सूअर बनके जन्मा. उसके बाद सौ-सौ साल तक ऊंट, शेर, भैंसा और हजार साल सांप हुआ फिर राक्षस हुआ 


राक्षस बनने के बाद एक दिन एक व्यक्ति के शरीर में प्रवेश करके मैं व्रजभूमि में घुस आया. वहां वृंदावन में यमुना तट पर भगवान कृष्ण के पार्षद मुझे पहचान गए उन्होंने मुझे पकड़कर खूब पीटा और इस क्षेत्र से दूर रहने को कहा 

किसी तरह बचकर व्रज क्षेत्र से बाहर आया पर तब से आज तक बहुत दिनों से भूखा था आज तुम्हें देखा तो लगा भूख शांत होगी  तुमको खाने ही जा रहा था कि इसी बीच तुमने मुझे गिरिराज जी के उस पत्थर से मारा 

गिरिराजजी का कण-कण पवित्र है  उस पत्थर के लगते ही साक्षात् भगवान कृष्ण की कृपा मुझ पर हुई और मेरा तत्काल उद्धार हो गया 

वह अपनी कथा सुना ही रहा था कि तभी एक रथ गोलोक से धरती पर उतरा 

ब्राह्मण विजय और सिद्ध दोनों ने उस रथ को नमस्कार किया. सिद्ध को उस रथ में बिठा लिया गया और रथ श्रीकृष्ण के धाम की ओर चल पड़ा

इतनी कथा सुनाकर नारदजी बोले- हे बहुलाश्व, वह सिद्ध तो श्रीकृष्ण धाम को चला गया ब्राह्मण भी गिरिराज की महिमा जान गया था  उसने गिरिराज की परिक्रमा की फिर सभी गिरिराज देवताओं के दर्शन किये और घर को लौटा 

( गर्ग संहिता की कथा )

क्यों जीवन में कम से कम एक बार गोवर्धन का स्पर्श जरूर करना चाहिए ? 





संसार में सबसे बड़ा कौन - ?


एक बार नारद जी के मन में एक विचित्र सा कौतूहल पैदा हुआ। 
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उन्हें यह जानने की धुन सवार हुई कि ब्रह्मांड में सबसे बड़ा और महान कौन है? 
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नारद जी ने अपनी जिज्ञासा भगवान विष्णु के सामने ही रख दी। भगवान विष्णु मुस्कुराने लगे। 
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फिर बोले, नारद जी सब पृथ्वी पर टिका है। इसलिए पृथ्वी को बड़ा कह सकते हैं। और बोले परंतु नारद जी यहां भी एक शंका है।
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नारद जी का कौतूहल शांत होने की बजाय और बढ़ गया। नारद जी ने पूछा स्वयं आप सशंकित हैं फिर तो विषय गंभीर है। कैसी शंका है प्रभु?
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विष्णु जी बोले, समुद्र ने पृथ्वी को घेर रखा है। इसलिए समुद्र उससे भी बड़ा है। 
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अब नारद जी बोले, प्रभु आप कहते हैं तो मान लेता हूं कि समुद्र सबसे बड़ा है। 
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यह सुनकर विष्णु जी ने एक बात और छेड़ दी, परंतु नारद जी समुद्र को अगस्त्य मुनि ने पी लिया था। इसलिए समुद्र कैसे बड़ा हो सकता है? बड़े तो फिर अगस्त्य मुनि ही हुए। 
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नारद जी के माथे पर बल पड़ गया। फिर भी उन्होंने कहा, प्रभु आप कहते हैं तो अब अगस्त्य मुनि को ही बड़ा मान लेता हूं। 
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नारद जी अभी इस बात को स्वीकारने के लिए तैयार हुए ही थे कि विष्णु ने नई बात कहकर उनके मन को चंचल कर दिया। 
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श्री विष्णु जी बोले, नारद जी पर ये भी तो सोचिए वह रहते कहां हैं। 
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आकाशमंडल में एक सूई की नोक बराबर स्थान पर जुगनू की तरह दिखते हैं। फिर वह कैसे बड़े, बड़ा तो आकाश को होना चाहिए। 
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नारद जी बोले, हां प्रभु आप यह बात तो सही कर रहे हैं। आकाश के सामने अगस्त्य ऋषि का तो अस्तित्व ही विलीन हो जाता है। 
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आकाश ने ही तो सारी सृष्टि को घेर आच्छादित कर रखा है। आकाश ही श्रेष्ठ और सबसे बड़ा है। 
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भगवान विष्णु जी ने नारद जी को थोड़ा और भ्रमित करने की सोची।
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श्रीहरि बोल पड़े, पर नारदजी आप एक बात भूल रहे हैं। वामन अवतार ने इस आकाश को एक ही पग में नाप लिया था  फिर आकाश से विराट तो वामन हुए। 
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नारदजी ने श्रीहरि के चरण पकड़ लिए और बोले भगवन आप ही तो वामन अवतार में थे। 
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फिर अपने सोलह कलाएं भी धारण कीं और वामन से बड़े स्वरूप में भी आए। इसलिए यह तो निश्चय हो गया कि सबसे बड़े आप ही हैं। 
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भगवान विष्णु ने कहा, नारद, मैं विराट स्वरूप धारण करने के उपरांत भी, अपने भक्तों के छोटे हृदय में विराजमान हूं। 
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वहीं निवास करता हूं। जहां मुझे स्थान मिल जाए वह स्थान सबसे बड़ा हुआ न। 
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इसलिए सर्वोपरि और सबसे महान तो मेरे वे भक्त हैं जो शुद्ध हृदय से मेरी उपासना करके मुझे अपने हृदय में धारण कर लेते हैं। 
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उनसे विस्तृत और कौन हो सकता है। तुम भी मेरे सच्चे भक्त हो इसलिए वास्तव में तुम सबसे बड़े और महान हो।
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श्रीहरि की बात सुनकर नारद जी के नेत्र भर आए। उन्हें संसार को नचाने वाले भगवान के हृदय की विशालता को देखकर आनंद भी हुआ और अपनी बुद्धि के लिए खेद भी। 
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नारद जी ने कहा, प्रभु संसार को धारण करने वाले आप स्वयं खुद को भक्तों से छोटा मानते हैं। फिर भक्तगण क्यों यह छोटे-बड़े का भेद करते हैं। 
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मुझे अपनी अज्ञानता पर दुख है। मैं आगे से कभी भी छोटे-बड़े के फेर में नहीं पड़ूंगा। 
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यदि परमात्मा के प्रति हमारी पूर्ण श्रद्धा, समर्पण और भक्ति है तो हम सदैव परमात्मा से परोक्ष रूप से जुड़ जाते हैं।
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भगवान भक्त के वश में हैं भक्त अपनी निष्काम भक्ति से भगवान को वश में कर लेता है। 
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हमारे मन मे सदैव यही भाव होना चाहिए कि हे प्रभू, हे त्रिलोक के स्वामी इस संसार मे मेरा कुछ नही, यहां तक कि यह शरीर और श्वांसे भी मेरी नही है, फिर मैं आपको क्या समर्पण करूँ।
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फिर भी जो कुछ भी तेरा है वह तुम्हे सौंपता हूँ। आप ही सर्वेश्वर है, आप ही नियंता है, आप ही सृजन हार और आप ही संहारक है..!!


   🙏🏾🙏🏻🙏🏿जय जय श्री राधे🙏🏼🙏🏽🙏



🌹🙏🏻🌹संत का दाह-संस्कार 🌹🙏🏻🌹

एक संत थे और अपने ठाकुर "श्रीगोपीनाथ" की तन्मय होकर सेवा-अर्चना करते थे। उन्होंने कोई शिष्य नहीं बनाया था परन्तु उनके सेवा-प्रेम के वशीभूत होकर कुछ भगवद-प्रेमी भक्त उनके साथ ही रहते थे। 

कभी-कभी परिहास में वे कहते कि -"बाबा ! जब तू देह छोड़ देगो तो तेरो क्रिया-कर्म कौन करेगो?"

बाबा सहज भाव से उत्तर देते कि -"कौन करेगो? जेई गोपीनाथ करेगो ! मैं जाकी सेवा करुँ तो काह जे मेरो संस्कार हू नाँय करेगो !"

समय आने पर बाबा ने देह-त्याग किया। उनके दाह-संस्कार की तैयारियाँ की गयीं। चिता पर लिटा दिया गया। अब भगवद-प्रेमी भक्तों ने उनके अति-प्रिय, निकटवर्ती एक किशोर को अग्नि देने के लिये पुकारा तो वह वहाँ नहीं था... 

कुछ लोग उसे बुलाने गाँव गये परन्तु वह न मिला, इसके बाद दूसरे की खोज हुयी और वह भी न मिला। संध्या होने लगी थी, लोग प्रतीक्षा कर रहे थे कि वह किशोर शीघ्र आवे तो संस्कार संपन्न हो। 

अचानक प्रतीत हुआ कि किसी किशोर ने चिता की परिक्रमा कर उसमें अग्नि लगा दी। बाबा की देह का अग्नि-संस्कार होने लगा। 

दाह-संस्कार करने वाले को श्वेत सूती धोती और अचला [अंगोछा] धारण कराया जाता है..सो भगवद-प्रेमियों ने उनके निकटवर्ती किशोर का नाम लेकर पुकारा ताकि उसे वस्त्र दिये जा सकें। 

किन्तु वह किशोर तो वहाँ था ही नहीं। सब एकत्रित हुए, आपस में पूछा कि किसने दाह-संस्कार किया परन्तु किसी के पास कोई उत्तर न था। संभावना व्यक्त की गयी कि कदाचित वायुदेव ने इस कार्य में सहायता की सो उन श्वेत वस्त्रों को उस चिता में ही डाल दिया गया। सब लौट आये।

प्रात: ठाकुर श्रीगोपीनाथ का मंदिर, मंगला-आरती के लिये खोला गया और क्या अदभुत दृष्य है ! ठाकुर गोपीनाथ श्वेत सूती धोती को ही धारण किये हुए हैं और उनके कांधे पर अचला पड़ा है, इसके अतिरिक्त अन्य कोई वस्त्र अथवा श्रंगार नहीं है। नत-मस्तक हो गये सभी। 

भक्त और भगवान ! कैसा अदभुत प्रेम ! कैसा अदभुत विश्वास ! एक-दूसरे को कैसा समर्पण ! जय हो-जय हो से समस्त प्रांगण गुँजायमान हो गया।

हे मेरे श्यामा-श्याम ! दास की भी यही आपसे प्रार्थना है। दास के पास देने को वैसा प्रेम और समर्पण तो नहीं है परन्तु आप तो सर्व-शक्तिमान और परम कृपालु प्रेमी हैं.. 


 जय जय श्री राधे



        🦚 मयूरपंख 🦚

      वनवास के दौरान माता सीताजी को पानी की प्यास लगी ,तभी श्री रामजीने चारों ओर देखा तो उनको दूर-दूर तक जंगल ही जंगल दिख रहा था।

 कुदरत से प्रार्थना करी। हे जंगलजी आसपास जहां कही पानी हो वहां जाने का मार्ग कृपया सुझाईये ।तभी वहां एक मयुरने आ कर  श्री रामजी से कहा कि आगे थोड़ी दूर पर एक जलाशय है ।चलिए मैं आपका मार्ग पथ प्रदर्शक बनता हूं ।

 किंतु मार्ग में हमारी भूल चूक होने की संभावना है ।श्री रामजी ने पूछा वह क्यों ? तब मयूर ने उत्तर दिया कि मैं उड़ता हुआ जाऊंगा और आप चलते  हुए आएंगे ।

इसलिए मार्गमें मैं अपना एक एक पंख बिखेरता हुआ जाऊंगा ।उस के सहारे आप जलाशय तक पहुंची हि जाओगे ।

    यह बात को हम सभी जानते हैं कि मयूर के पंख, एक विशेष समय एवं एक विशेष ऋतु में ही बिखरते हैं ।

अगर वह अपनी इच्छा विरुद्ध पंखों को बिखेरेगा तो उसकी मृत्यु हो जाती है । वही हुआ ।अंत में जब मयुर अपनी अंतिम सांस ले  रहा  होता है...

 उसने कहा कि वह कितना भाग्यशाली है की जो जगत की प्यास बुझाते हैं ऐसे प्रभु की प्यास बुझाने का उसे सौभाग्य प्राप्त हुआ । मेरा जीवन धन्य हो गया।

अब  मेरी कोई भी इच्छा शेष नहीं रही । तभी भगवान श्री रामने मयुर से कहा की, मेरे लिए तुमने जो मयूर पंख बिखेरकर, मुझ पर जो ऋणानुबंध चढ़ाया है ,मैं उस  ऋण को अगले जन्म में जरूर चुकाऊंगा। मेरे सर पर आपको चढ़ाकर ।

   तत्पश्चात अगले जन्म में श्री कृष्ण अवतार में उन्होंने अपने माथे पर मयूर पंखको धारण कर वचन अनुसार उस मयुरका ऋण उतारा था।

  तात्पर्य यही है कि अगर भगवान को ऋण उतारने के लिए पुनः जन्म लेना पड़ता है, तो हम तो मानव है।न जाने हम तो कितने ही ऋणानुबंधसे बंधे हैं । उसे उतारने के लिए हमें तो कई जन्मभी कम पड़ जाएंगे।



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